वो दौर
वो दौर था एक ,
जब
मैं और मेरी आशिकी ,
दोनों
सच्चे थे ,
तलबगार
थे तेरे ,
मगर इतने भी नहीं ,
मगर इतने भी नहीं ,
की खैरातो से दिन कटे |
कुछ खुबसूरत कविताएँ
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आगे बड़कर जब भी लौटा हू,
उसने कहा तुम बदल गये,
पर जनाब लोग उही नहीं बदलते ||
पर जनाब लोग उही नहीं बदलते ||
हु
मैं सफ़र में ,
और सफ़र की बाते सबको ,
बताना
चाहता हू ,
पर कैसे कहू,,
दुविधा में हु ,
सूखे होटों से अल्फाज भी नहीं निकलते |
पर कैसे कहू,,
दुविधा में हु ,
सूखे होटों से अल्फाज भी नहीं निकलते |
अब नहीं कहता मै किसी से ,
की मेरी कोई मोहब्बत है ,
क्योकि इश्क,प्यार,ये सब ,
बस एक शिकायत है ,
अफ़सोस शिकायतो से ,
मसले नहीं सुलझते |
वो दौर ( lovely poem )
Reviewed by Triveni Prasad
on
मई 19, 2019
Rating:
Very nice
जवाब देंहटाएंthanks
हटाएंAwesome
जवाब देंहटाएंNice poem
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